सरकार को बनाने या बिगाड़ने के लिए महज़ एक वोट ही काफी..

Updated on 26-11-2022 06:49 PM

- अतुल मलिकराम (राजनीतिक विश्लेषक)

मेरे एक वोट से क्या ही होगा..
चुनाव के दौरान अपने मत को लेकर लोगों की विचारधाराएँ एक-दूसरे से काफी अलग होती हैं। अक्सर यह देखने में आता है कि कुछ लोग अपने देश के लिए सर्वश्रेष्ठ नेता चुनने को लेकर काफी गंभीर रहते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई भी महज़ वादे प्रिय नेता सत्ता में आए और चुनावों से पहले किए भारी-भरकम वादों को चुनाव जीतने के बाद किसी नदी में ले जाकर विसर्जित कर दे। इसलिए वे अपना मत जरूर देते हैं, फिर चाहे परिणाम कुछ भी हों।

लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो पहले ही यह मन बना लेते हैं कि वोट देने से मतलब ही क्या है, जीतना तो फलाना पार्टी को ही है। वे यह सोचते हैं कि हमारे एक वोट से क्या ही हो जाएगा। लेकिन समझदार होने के बावजूद वे इस बात से अंजान हैं कि कई बार महज़ एक वोट इतना भारी पड़ा है कि वह पूरी की पूरी सत्ता पर पलटवार करने का माध्यम बन गया, और इसके कई उदाहरण इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के उदाहरण से लगभग हर एक इंसान वाकिफ है। सत्तापलट की यह घटना सन् 1999 की है, जो कि बिल्कुल उस किताब की तरह है, जिस पर बरसों से धूल की ओट चढ़ती जा रही है, लेकिन यह धूल किताब के एक अक्षर को भी धुंधला नहीं कर सकी है। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार कई पार्टियों के समर्थन से बनी थी। लेकिन एआईएडीएमके के समर्थन वापस लेने के बाद सरकार को संसद में विश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। अटल जी के पक्ष में 269 वोट मिले, जबकि विरोध में 270 वोट मिले, और महज़ एक वोट से सरकार गिर गई।

मतदान न करने का शायद सबसे बुरा भुगतान सीपी जोशी ने किया है। राजस्थान में वर्ष 2008 के विधानसभा चुनाव में सीपी जोशी, कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री के दावेदार थे। इस चुनाव में उन्हें 62,215 वोट मिले, जबकि कल्याण सिंह को एक वोट ज्यादा यानि 62,216 वोट मिले। मुद्दे की बात यह है कि सीपी जोशी की माँ, पत्नी और ड्राइवर ने अपना मत दिया ही नहीं। यदि ये तीनों लोग वोट देते, तो सत्ता पर सीपी जोशी राज कर रहे होते और इस एक वोट की हिम्मत नहीं होती कि वह उन्हें एक वोट औंधी पछाड़ लगाता।

विधानसभा चुनाव की इस कतार में जेडीएस के एआर कृष्णमूर्ति भी शामिल हैं, वर्ष 2004 में जिनके विधायक बनने पर महज़ एक वोट पूर्णविराम बनकर खड़ा हो गया था। कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनावों में कृष्णमूर्ति को 40,751 वोट मिले, जबकि कांग्रेस के आर ध्रुवनारायण को 40,752 वोट मिले। हैरान करने वाली बात यहाँ भी समान है कि कृष्णमूर्ति के कार ड्राइवर ने मतदान नहीं किया था और यह एक वोट उन्हें गहरी चोट दे गया।

सिर्फ देश ही नहीं, विदेशों में भी एक वोट की कमी के कारण कई दफा सत्ताधारियों को औंधे मुँह की खानी पड़ी है। सन् 1875 में फ्रांस में महज़ एक वोट से राजशाही खत्म हुई और लोकतंत्र की स्थापना हो गई। एक वोट की ताकत क्या होती है, इस बात से जर्मन के लोग भी खूब वाकिफ हैं। सन् 1923 के दौर में महज़ एक वोट के अंतर से एडोल्फ हिटलर जीत गए और नाजी दल के प्रमुख बन गए। और इस तरह से हमेशा के लिए इतिहास बदल गया। सन् 1876 में अमेरिका में हुए 19वें राष्ट्रपति पद के चुनावों में रदरफोर्ड बी हायेस 185 वोट हासिल कर राष्ट्रपति चुने गए थे। इन चुनावों में उनके प्रतिद्वंदी सैमुअल टिलडेन को 184 वोट मिले और इस तरह से महज़ एक वोट के अंतर से वे दुनिया के सबसे अमीर लोकतंत्र के मुखिया बनने से चूक गए।

यह तो हुई सत्ता की बात, लेकिन अमेरिका में केवल एक वोट के अंतर से उनकी मातृभाषा भी जीत गई थी। सन् 1776 में एक वोट की बदौलत ही अमेरिका में जर्मन की जगह अंग्रेजी उनकी मातृभाषा बन गई थी, जो आज पूरी दुनिया पर राज कर रही है।

एक वोट कितना मायने रखता है, इसकी गाथा गाते ऐसे सैकड़ों उदाहरण इतिहास के पन्नों में दबे हुए हैं, जो बार-बार यही गुहार लगाते हैं कि अपना अधिकार जरूर निभाएँ और वोट जरूर दें।

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