महिला सशक्तिकरण का व्यवहारिक पक्ष और चुनौतियाँ

Updated on 08-11-2023 12:55 PM
दुनिया बनाने के बाद ईश्वर ने सोचा होगा इस दुनिया को और सुन्दर होना चाहिये, और उन्होंने सत्य की रचना की। सत्य याने मानव और मानव के दो रूप स्त्री और पुरुष। ये दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं किन्तु नारी के बिना दुनिया का कोई अस्तित्व नहीं है। क्योंकि ईश्वर ने नारी की रचना ही इस प्रकार से की है कि इस संसार की निर्मात्री वह स्वयं हो गई। अनेक महान व्यक्ति है जो कि नारी के किसी भी रूप, चाहे वह माँ, बहन, पत्नि या भाभी के कारण महान हुये है। आज वह समय आ गया है जब महिलाओं के विकास पर ही संसार की तरक्की निर्भर है। “मनुस्मृति” में स्पष्ट लिखा है कि जहां स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते है। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति इतनी अच्छी होने के बावजूद आज कई जगहों पर स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाती है।

इक्कीसवी सदी में कदम रखने वाले भारतीय समाज में स्त्री को आज भी वह दर्जा प्राप्त नहीं हुआ जो कि उसे बहुत पहले मिल जाना चाहिये था। बहुओं को आज भी निर्भयता पूर्वक जलाया जा रहा है, तलाक स्त्री के लिए बदनुमा दाग है और पुरुष की आजादी है जहाँ बालिका भ्रुण हत्या एक लेटेस्ट फैशन है। एक ऐसे अमानवीय, पतनशील समाज में स्त्री, फिर भी जीवित है, यह किसी आश्चर्य से कम नही। वैदिक युग की सभ्यता सबसे प्राचीन है वैदिक युगीन सभ्यता में भारत में आर्यों का राज था। उनका जीवन सुखमय था स्त्रियों का समाज में आदर था सत्युग में स्त्री को नैतिकता का आदर्श मान लिया गया। द्वापर में नारी को बराबर का दर्जा हासिल था,  बौद्ध काल में स्त्रियों की दशा अत्यंत हीन व सोचनीय थी।

मुगल काल में औरत पर्दे की कैद में चली गयी, ब्रिटिश काल में आधुनिक शिक्षा का प्रचार हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महारानी लक्ष्मीबाई देश की स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजों से टकराई। उन्होंने भारतीय नारी का गौरव बढ़ाया है। स्त्री पुरुष का संबंध शाक्ष्वत है। स्त्री को संतान प्राप्ति का साधन माना गया, उसे हमेशा पुरुष के संरक्षण में रहने को विवश किया जाता रहा है। पिता, पति और पुत्र की आज्ञा पालन को विवश किया जाता रहा है।

स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा ना देना, उसे पुरुषों के समकक्ष ना समझना इस विकसित समाज की एक बड़ी विडम्बना है। यह भी सत्य है कि वर्तमान में वह अनेक स्थान पर अपना विशेष मुकाम बना चुकी है। जिसकी प्रतीक्षा वह बरसों से करती आ रही थी। भारत में स्त्रियों को इतने बंधन है, जितने किसी देश में नहीं। हम जानते है नारी सृष्टि निर्माता की अद्वितीय रचना है और सारी सृष्टि नारी से चलती है। नारी जिसे शक्ति रूप माना गया है। जिसे हम महिला शब्द से संबोधित करते है। महि अर्थात् पृथ्वी और ला का अभिप्राय सृष्टि से है। जो धरती की तरह धीरज करने की शक्ति रखती है। वह महिला है। वह धरती जिस पर प्रत्येक व्यक्ति जीवन बिताते हैं। वह भी धरती मां कहलाती है। नदियां जो हमें जीवन प्रदान करती है। उन्हें भी मां शब्द से संबोधित करते हैं। देवताओं पर भी जब संकट आया था तो उन्हें भी मां दुर्गा की शरण में जाना पड़ता था। 

समाज के सर्वांगीण विकास के लिये न केवल उन्हें शिक्षित होना होगा बल्कि आत्मनिर्भर भी होना चाहिये! जिससे वे घर व समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सके। यद्यपि कुछ ही दशकों में विशाल दार्शनिक दूरियाँ तय कर ली है। भारतीय महिला आंदोलन की शुरुआती दौर में महिला समर्थकों ने परिवार और समाज के व्यवस्था क्रम में स्त्री को अधीन बनाये रखने के लिये की जाने वाली शारीरिक मानसिक हिंसा को अपने आंदोलन का केन्द्र बनाया। रूढ़ीवादी और परंपरावादी खोखली जंजीरों से मुक्त होकर कुछ मध्यम वर्गीय भारतीय शहरी महिलाओं ने अपनी क्षमता और ताकत को पहचान कर उसका उपयोग सार्वजनिक और निजी संसार में करना शुरु किया। मुक्त और शक्ति का यह अहसास ही सशक्तिकरण की शुरुआत है।

आज सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक रूप से स्त्रियों ने इतनी तरक्की अवश्य कर ली है कि वे समाज, परिवार और घर में अपना विशिष्ट स्थान बना सकी है। आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है। जहाँ स्त्रियों ने अपना परचम न लहराया हो। चाहे खेल हो या राजनीतिक, सामाजिक हो या आर्थिक क्षेत्र हो। किसी भी विभाग चाहे शिक्षा, प्रबंध, प्रशासन, बैंक या शासन उसने अपनी शक्ति और ताकत का लोहा ना मनवा लिया है। स्व. प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी, मार्गेट थेचर, श्रीमती भण्डार नायके, बैनजीर भुट्टो, कल्पना चावला, नुरजहां, मधुबाला, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम से लेकर सानिया मिर्जा तक सफल सैकड़ों ऐसी स्त्रियां है जिन्होंने अपनी क्षमता अपनी कला और अपने आत्मबल से उस उच्चतम स्थान को प्राप्त किया है।

परंतु विडंबना यही है कि ऐसी स्त्रियों की संख्या सिर्फ सैकड़ों में हो सकती है। जबकि देश की जनसंख्या एक अरब पच्चीस करोड़ से ऊपर हो चुकी है। ऐसी स्थिति में स्त्रियों को और अधिक जागरूक होना होगा। अपनी अस्मिता की रक्षा स्वयं करनी होगी। अपनी शक्ति को पहचानना होगा और यह तभी संभव है जब नारी ही नारी की दुश्मन बने। सास, बहु को बेटी माने और बेटी भी सास को मां माने एवं मां अपनी ही कोख की अजन्मी बेटी के “भ्रुण“ की हत्या न कर दें। समय को पहचानते हुए समय की नजाकत को समझे, नही तो सृष्टि की सृजनकर्ता स्वयं सृष्टि में विलीन होकर रह जायेगी।
सशक्तिकरण के लिये आत्मविश्वास और स्वाभिमान के साथ समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त करना आवश्यक है। महिलाओं को जागरूक और साहसी बनाने के लिये शिक्षा और आर्थिक स्वावलंबन आवश्यक है। इस दौर में महिलाओं ने “कारपोरेट“ जगत में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। स्वावलंबन महिला में स्वाभिमान पैदा करता है। स्वाभिमान से चेतना आती है और चेतना से सामर्थ्य का निर्माण करती है। इसलिये महिलाओं में आत्मनिर्भरता होना आवश्यक है।

भारत सरकार ने सन् 1958 में राष्ट्रीय महिला शिक्षा समिति बनाई, जिसकी “अध्यक्ष दुर्गाबाई देशमुख थी।  सन् 1959 में राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद् का निर्माण किया। सन् 1964 में इसका पुर्नगठन किया गया। सन् 1962 में श्रीमती हंसा मेहता समिति बनाई जिसका कार्य विद्यालय स्तर पर बालिकाओं की शिक्षा से संबंधित समस्याओं का समाधान करना था। 1964 में कोठारी आयोग ने कहा था कि स्त्री शिक्षा के मार्ग से समस्त बाधाओं को हटाने के लिये ठोस एवं निश्चित कदम उठाये जाने चाहिये। सभी पंचवर्षीय योजनाओं में सामाजिक, आर्थिक स्तर को उन्नत बनाने के संदर्भ में स्त्री शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, इसी बात को ध्यान में रखते हुये राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में स्त्री के स्तर में परिवर्तन लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में नारी समानता के लिये शिक्षा को अनिवार्य बताया।
जिसका परिणाम ही आज हमारे सामने परिलक्षित हो रहा है। नारी की पहुंच से कोई क्षेत्र अछूता नहीं है। कुछ विडम्बनाओं को अनदेखा कर दें तो हम पायेंगे कि स्त्री की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवसायिक एवं शैक्षिक स्थिति का ग्राफ काफी ऊंचा चला गया है। यही कारण है कि नारी पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रही है और कहीं कहीं तो उनसे भी आगे निकल गई है।

प्रत्येक देश व समाज का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश की आधी आबादी अर्थात् महिलाओं का सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक व्यवस्था में क्या स्थान है? इसी पर बल देते हुये नेहरु जी ने सन् 1958 में तारा अली बेग वूमेन ऑफ इंडिया की भूमिका लिखते हुये कहा कि एफ. फ्रांसिस ने लिखा था कि किसी देश की स्थिति जानने के लिए सबसे अच्छा उपाय यह पता लगाना है कि वहां महिलाओं की स्थिति कैसी है। इस कथन का आशय यह है कि यदि देश में महिलाओं की स्थिति अच्छी है तो यह माना जा सकता है कि उस देश की स्थिति अच्छी है। वेदों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि ऋवैदिक काल में भारतीय महिलाओं की स्थिति सम्मानजनक थी। यद्यपि इस काल में परिवार पितृसत्तात्मक थे और पुत्रों की कामना की जाती थी। उत्तर वैदिक साहित्य के आरंभिक वर्षों में महाभारत की रचना हुई जहां स्त्रियों का आदर होता है वहां देवता निवास करते है जैसी उक्तियाँ मानवाधिकार संबंधी सकारात्मक स्थितियों की ओर इंगित करती है, वहीं दूसरी ओर मनु ने कहा पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यांवने, स्थविरे पुत्राः न स्त्री स्वतंत्रतामर्हति अर्थात् विवाह के पूर्व पिता रक्षा करता है विवाह के बाद पति, बुढ़ापे में पुत्र रक्षा करता है। 19वीं शताब्दी में भारतीय महिलाओं का सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक सभी क्षेत्रों में निरंतर पतन होता गया। समाज में अनेक कुरीतियां विद्यमान थी जैसे जाति प्रथा, बाल विवाह, कन्या वधु, विधवा विवाह न होना, सती प्रथा आदि कारणों से स्त्रियों के मानवाधिकारों का हनन हो रहा था। पंडितराहुल सांकृत्यायन के अनुसार धर्मान्धता के चलते सती प्रथा के नाम पर भारतीय समाज में डेढ़ करोड़ विधवाओं को पतियों की चिताओं पर जिंदा जलाकर स्वर्ग भेज चुका है। वहीं महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए अनेक महत्वपूर्ण समाज सुधारकों, जैसे- राजाराम मोहन राय, केशवचंद विद्यासागर, ज्योतिबा फुले, स्वामी दयानंद सरस्वती आदि ने समाज को जागरुकता लाने एवं महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 
यह विडम्बना ही कही जायेगी, आजादी के साल बाद भी नारी, कभी परंपरा के नाम पर, कभी धर्म, कभी परिवार तो कभी रीति रिवाजों के नाम पर अपने ही घर में दोयम दर्जे की नागरिक बन कर रहती है और मानवीय अधिकारों का उल्लंघन करने वाली प्रथाओं का शिकार बन जाती है।

मानव अधिकार प्रत्येक मानव की ज़रूरत है इसके अभाव में व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर सकता। सैद्धांतिक रूप से जीवन स्वतंत्रता और मानवीय गौरव और सम्मान के अधिकार को मानवाधिकार माना गया है।

महिला संगठनों को एकजुट होकर सामाजिक, राजनीतिक आंदोलन चलाने की जरूरत है। महिला सशक्तिकरण सिर्फ कागज पर न हो बल्कि इसमें पूरे समाज की भागीदारी होनी चाहिये। माताओं को भी अपनी बेटियों को महत्व देकर उनमें एक ऐसी परिपक्व सोच एवं समझ विकसित कर नई पीढ़ी के रूप में तैयार करना होगा जो अपने साथ-साथ समाज को नई दिशा दे सके। अतः इस प्रकार के कानून तभी सफल होंगे जब स्वयं नारी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होकर अपने शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद करेगी राम मनोहर लोहिया ने कहा था यदि सचमुच बराबरी के आदर्श को मानते हो और समाज की पुर्नरचना बराबरी के आधार पर करना चाहते हो तो फिर पुरुष को स्त्रियों के लिये अपनी सोच को बदलना होगा अतः महिलाओं के शोषण, हिंसा एवं अत्याचार को रोकने के लिए कानून बनाने से उनकी स्थिति को नहीं बदला जा सकता । कानून सिर्फ राह दिखा सकता है । क्या सही है क्या गलत है इसके लिए समाज का नजरिया बदलना होगा।

                                                                                                                                                                                                      नीलम सिंह


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